अफसाना -ए- हयात का उनवाँ तुम्हीं तो हो/ अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
अफसाना -ए- हयात का उनवाँ तुम्हीं तो हो
तारे नफ़स है जिस से ग़ज़लख्वाँ तुम्हीं तो हो
रोशन है तुम से शमए शबिस्ताने आरज़ू
मेरे नेशाते रूह का सामाँ तुम्हीं तो हो
आबाद तुमसे ख़ान -ए-दिल था मेरा मगर
जिसने किया है अब उसे वीराँ तुम्हीं तो हो
कुछ तो बताओ मुझसे कि आख़िर कहाँ हो तुम
नूरे निगाहें दीद -ए- हैराँ तुम्हीं तो हो
मैँ देखता हूँ बज़्मे नेगाराँ में हर तरफ
जो है मेरी निगाह से पिनहाँ तुम्हीं तो हो
करते हो बात बात में क्यों मुझसे दिल्लगी
जिसने किया है मुझको परीशाँ तुम्हीं तो हो
क्योँ ले रहे हो मेरी मोहब्बत का इम्तेहाँ
लूटा है जिसने मेरा दिलो जाँ तुम्हीँ तो हो
है मौसमे बहार में बेकैफ ज़िंदगी
मश्शात- ए- उरूसे बहाराँ तुम्हीं तो हो
"बर्क़ी" के इंतेज़ार की अब हो गई है हद
उसके तसव्वुरात में रक़साँ तुम्हीं तो हो
आमद-ए गुल है मेरे आने से / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
आमद-ए गुल है मेरे आने से
और फसले ख़िज़ाँ है जाने से
मैं चला जाऊँगा यहाँ से अगर
नहीं आऊँगा फिर बुलाने से
तुम तरस जाओगे हँसी के लिए
बाज़ आओ मुझे रुलाने से
हो गया मैं तो ख़नुमाँ -बरबाद
फ़ायदा क्या है दुख जताने से
उस से कह दो कि वक़्त है अब भी
बाज़ आ जाए ज़ुल्म ढाने से
वरना जाहो हशम का उसके यह
नक़्श मिट जाएगा ज़माने से
हम भी मुँह मे ज़बान रखते हैँ
हमको परहेज़ है सुनाने से
या तो हम बोलते नहीं हैं कुछ
बोलते हैं तो फिर ठेकाने से
एक पल में हुबाब टूट गया
क्या मिला उसको सर उठाने से
अशहब-ए ज़ुल्मो जौरो इसतेहसाल
डर ज़माने के ताज़याने से
क़फ़से-उंसरी को घर न समझ
कम नहीं है यह ताज़ियाने से
रूह है क़ैद जिस्म-ए ख़ाकी में
कब निकल जाए किस बहाने से
हँस के बिजली गिरा रहे थे तुम
है जलन मेरे मुस्कुराने से
क्यों धुआँ उठ रहा है गाह-ब-गाह
सिर्फ़ मेरे ही आशियाने से
लम्ह-ए फिक्रिया है यह बर्क़ी
सभी वाक़िफ हैं इस फ़साने से
इतना न खींचो हो गया बस / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
इतना न खींचो हो गया बस
टूट न जाए तारे नफस
शीरीं बयानी उसकी मेरे
घोलती है कानों में मेरे रस
खाती हैं बल नागिन की तरह
डर है न लेँ यह ज़ुलफें डस
उसका मनाना मुशकिल है
होता नहीं वह टस से मस
वादा है उसका वादए हश्र
अभी तो गुज़रे हैँ चंद बरस
फूल उन्हों ने बाँट लिए
मुझको मिले हैं ख़ारो ख़स
सुबह हुई अब आँखें खोल
सुनता नहीँ क्या बाँगे जरस
उसने ढाए इतने ज़ुल्म
मैंने कहा अब बस बस बस
बर्क़ी को है जिस से उम्मीद
उसको नहीं आता है तरस
उसने कहा था आऊँगा कल / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
उसने कहा था आऊँगा कल
गिनता था मैं एक एक पल
कल आया और गुज़र गया
आया नहीं वह जाने ग़ज़ल
देख रहा हूँ उसकी राह
पड़ गए पेशानी पर बल
पूछ रहा हूँ लोगों से
झाँक रहे हैं सभी बग़ल
बोल उठा मुझसे यह रक़ीब
मेरी तरह अब तू भी जल
कोई नहीं है उसके सिवा
करे जो मेरी मुश्किल हल
आती है जब उसकी याद
मन हो जाता है चंचल
उसका ख़ेरामे- नाज़ न पूछ
खाती हो जैसे नागिन बल
सोज़े दुरूँ जब लाया रंग
शम-ए मुहब्बत गई पिघल
आ गया अब वह लौट के घर
उसका इरादा गया बदल
अहमद अली ‘बर्क़ी’ है शाद
उसकी तबीयत गई सँभल
ऐ ग़ुंचा दहन, रशके चमन, माहजबीं और/ अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
ऐ ग़ुंचा दहन, रशके चमन, माहजबीं और अल्लाह करे तुझको, तू हो जाए हसीं और |
करता रहा मैँ क़ाफिया पैमाई रात भर / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
करता रहा मैं क़ाफिया पैमाई रात भर
बजती थी मेरे ज़ेह्न मेँ शहनाई रात भर
आई जो उसकी याद तो आती चली गई
एक लमहा मुझको नीँद नहीँ आई रात भर
बरपा था मेरे ज़ेह्न मेँ एक महशरे ख़याल
उसने बना दिया मुझे सौदाई रात भर
कितना हसीँ था उसका तसव्वुर न पूछिए
सब्र आज़मा रही मुझे तनहाई रात भर
मैँ छेड़ता था उसको तसव्वुर में बार- बार
रह रह के ले रही थी वह अंगडाई रात भर
मैं देखता ही रह गया जब आई सामने
मुझ मेँ नहीं थी क़ूवते गोयाई रात भर
मैँ दमबख़ुद था देख के उसका वफ़ूरे शौक़
वह मुझ को देख देख के शरमाई रात भर
बातों में उसकी आगया मैं और कहा कि जाओ
मैँ फिर मिलूँगी उसने क़सम खाई रात भर
यह जानते हुए भी कि वादा शिकन है वह
मैं मुंतज़िर था चलती थी पुरवाई रात भर
करता रहा मैँ उसका कई दिन तक इंतेज़ार
लेकिन वह ख्वाब मेँ भी नहीँ आई रात भर
बर्क़ी नेशाते रूह था मेरा जुनूने शौक़
मैं कर रहा था अंजुमन आराई रात भर
ज़िंदगी का वह मेरी लम्हा था बेहद ख़ुशगवार / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
ज़िंदगी का वह मेरी लम्हा था बेहद ख़ुशगवार |
जिस परी पैकर से मुझको प्यार है / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
जिस परी पैकर से मुझको प्यार है |
दर्द-ए-दिल अपनी जगह दर्द-ए-जिगर अपनी जगह / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
दर्द-ए-दिल अपनी जगह दर्द-ए-जिगर अपनी जगह
अश्कबारी कर रही है चश्मे-ए-तर अपनी जगह
साकित-ओ-सामित हैं दोनों मेरी हालत देखकर
आइना अपनी जगह आइनागर अपनी जगह
बाग़ में कैसे गुज़ारें पुर-मसर्रत ज़िन्दगी
बाग़बाँ का खौफ़ और गुलचीं का डर अपनी जगह
मेरी कश्ती की रवानी देखकर तूफ़ान में
पड़ गए हैं सख़्त चक्कर में भँवर अपनी जगह
है अयाँ आशार से मेरे मेरा सोज़-ए-दुरून
मेरी आहे आतशीं है बेअसर अपनी जगह
हाल-ए-दिल किसको सुनायें कोई सुनता ही नहीं
अपनी धुन में है मगन वो चारागर अपनी जगह
अश्कबारी काम आई कुछ न 'बर्क़ी'! हिज्र में
सौ सिफ़र जोड़े नतीजा था सिफ़र अपनी जगह
नया साल ख़ुशियोँ का पैग़ाम लाए / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
नया साल ख़ुशियोँ का पैग़ाम लाए
ख़ुशी वह जो आए तो आकर न जाए
ख़ुशी यह हर एक व्यक्ति को रास आए
मोहब्बत के नग़मे सभी को सुनाए
रहे जज़ब ए ख़ैर ख़्वाही सलामत
रहें साथ मिल जुल के अपने पराए
जो हैँ इन दिनोँ दूर अपने वतन से
न उनको कभी यादें ग़ुर्बत सताए
नहीँ खिदमते ख़ल्क़ से कुछ भी बेहतर
जहाँ जो भी है फ़र्ज़ अपना निभाए
मुहबबत की शमएँ फ़रोज़ाँ होँ हर सू
दिया अमन और सुलह का जगमगाए
रहेँ लोग मिल जुल के आपस में बर्क़ी
सभी के दिलोँ से कुदूरत मिटाए
नया साल है और नई यह ग़ज़ल / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
नया साल है और नई यह ग़ज़ल
सभी का हो उज्जवल यह आज और कल
ग़ज़ल का है इस दौर मेँ यह मेज़ाज
है हालात पर तबसेरा बर महल
बहुत तल्ख़ है गर्दिशे रोज़गार
न फिर जाए उम्मीद पर मेरी जल
मेरी दोस्ती का जो भरते हैँ दम
छुपाए हैँ ख़ंजर वह ज़ेरे बग़ल
न हो ग़म तो क्या फिर ख़ुशी का मज़ा
मुसीबत से इंसाँ को मिलता है बल
यह मंदी जो है सारे संसार में
घड़ी यह मुसीबत की जाएगी टल
वह आएगा उसका हूँ मैं मुंतज़िर
न जाए खुशी से मेरा दम निकल
है बेकैफ़ हर चीज़ उसके बग़ैर
नहीं चैन मिलता मुझे एक पल
अगर आ गया मुझसे मिलने को वह
तो हो जाएगा मेरा जीवन सफल
न समझें अगर ग़म को ग़म हम सभी
तो हो जाएँगी मुशकिलें सारी हल
सभी को है मेरी यह शुभकामना
नया साल सबके लिए हो सफल
ख़ुदा से है बर्की मेरी यह दुआ
ज़माने से हो दूर जंगो जदल
नहीं है उसको मेरे रंजो ग़म का अंदाज़ा / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
नहीं है उसको मेरे रंजो ग़म का अंदाज़ा
बिखर न जाए मेरी ज़िंदगी का शीराज़ा
अमीरे शहर बनाया था जिस सितमगर को
उसी ने बंद किया मेरे घर का दरवाज़ा
सितम शआरी में उसका नहीं कोई हमसर
सितम शआरों में वह है बुलंद आवाज़ा
गुज़र रही है जो मुझपर किसी को क्या मालूम
जो ज़ख्म उसने दिए थे हैं आज तक ताज़ा
गुरेज़ करते हैँ सब उसकी मेज़बानी से
भुगत रहा है वह अपने किए का ख़मियाज़ा
है तंग क़फिया इस बहर में ग़ज़ल के लिए
दिखाता वरना मैं ज़ोरे क़लम का अंदाज़ा
वह सुर्ख़रू नज़र आता है इस लिए `बर्क़ी'
है उसके चेहरे का ख़ूने जिगर मेरा ग़ाज़ा
अमीरे शहर-हाकिम, सितम शआरी-ज़ुल्म
सितम शआर- ज़लिम, ग़ाज़ा-क्रीम, बुलंद आवाज़ा- मशहूर
पलट कर वो कहीं कर दे न तुम पर वार चुटकी में / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
बदलता रहता है हर दम मिज़ाजे-यार चुटकी में ,
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी में
कहीं ऐसा न हो हो जाए वह बेज़ार चुटकी में
तुम उस से कर रहे हो दिल्लगी बेकार चुटकी में
दिले नादाँ ठहर, अच्छी नहीं यह तेरी बेताबी
नहीं होती है राह-ए-वस्ल यूँ हमवार चुटकी में
अगर चशमे -इनायत हो गई उसकी तो दम भर में
वह रख देगा बदल कर तेरा हाल-ए-ज़ार चुटकी में
अगर मर्ज़ी नहीं उसकी तो तुम कुछ कर नहीं सकते
अगर चाहे तो हो जाएगा बेड़ा पार चुटकी में
बज़ाहिर नर्म दिल है ,वो कभी ऐसा भी होता है
वो हो जाता है अकसर बर-सरे पैकार चुटकी में
कभी भूले से भी करना न तुम उसकी दिल आज़ारी
बदल जाती है उसकी शोख़ी -ए -गुफ़्तार चुटकी में
सँभल कर सब्र का तुम लेना उसके इम्तिहाँ वरना
पलट कर वो कहीं कर दे न तुम पर वार चुटकी में
हमेशा याद रखना वो बहुत हस्सास है 'बर्क़ी'
अगर ख़ुश है तो हो जाएगा वो तैयार चुटकी में
मेरी जानिब निगाहें उसकी हैं दुज़दीदह दुज़दीदह / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
मेरी जानिब निगाहें उसकी की हैं दुज़दीदह दुज़दीदह
जुनूने शौक़ में दिल है मेरा शोरीदह शोरीदह
न पूछ ऐ हमनशीं कैसे गुज़रती है शबे फ़ुर्क़त
मैं हूँ आज़ुर्दह ख़ातिर वह भी है रंजीदह रंजीदह
गुमाँ होता है हर आहट पे मुझको उसके आने का
तसव्वुर में मेरे रहता है वह ख़्वाबीदह ख़्वाबीदह
वह पहले तो न था ऐसा उसे क्या हो गया आख़िर
नज़र आता है वह अकसर मुझे संजीदह संजीदह
न पूछो मेरी इस वारफ़्तगी ए शौक़ का आलम
ख़लिश दिल की मुझे कर देती है नमदीदह नमदीदह
बहुत पुरकैफ़ था उसका तसव्वुर शामे तनहाई
निगाहे शौक़ है अब मुज़तरिब नादीदह नादीदह
सफर दश्ते तमन्ना का बहुत दुशवार है बर्क़ी
पहुँच जाऊँगा मैं लेकिन वहाँ लग़ज़ीदह लग़ज़ीदह
सता लें हमको, दिलचस्पी जो है उनकी सताने में / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
सता लें हमको, दिलचस्पी जो है उनकी सताने में
हमारा क्या वो हो जाएँगे रुस्वा ख़ुद ज़माने में
लड़ाएगी मेरी तदबीर अब तक़दीर से पंजा
नतीजा चाहे जो कुछ हो मुक़द्दर आज़माने में
जिसे भी देखिए है गर्दिशे हालात से नाला
सुकूने दिल नहीं हासिल किसी को इस ज़माने में
वो गुलचीं हो कि बिजली सबकी आखों में खटकते हैं
यही दो चार तिनके जो हैं मेरे आशियाने में
है कुछ लोगों की ख़सलत नौए इंसां की दिल आज़ारी
मज़ा मिलता है उनको दूसरों का दिल दुखाने में
अजब दस्तूर-ए-दुनिया- ए-मोहब्बत है , अरे तौबा
कोई रोने में है मश़ग़ूल कोई मुस्कुराने में
पतंगों को जला कर शमअ-ए-महफ़िल सबको ऐ 'बर्क़ी'!
दिखाने के लिए मसरूफ़ है आँसू बहाने में.
सफ़र नया ज़िंदगी का तुमको न रास आए तो लौट आना / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
सफ़र नया ज़िंदगी का तुमको न रास आए तो लौट आना
फ़िराक़ में मेरे नींद तुमको अगर न आए तो लौट आना
नहीं है अब कैफ़ कोई बाक़ी तुम्हारे जाने से ज़िंदगी में
तुम्हें भी रह-रह के याद मेरी अगर सताए तो लौट आना
तेरे लिए मेरा दर हमेशा इसी तरह से खुला रहेगा
अगर कभी वापसी का दिल में ख़याल आए तो लौट आना
बग़ैर तेरे बुझा- बुझा है बहार का ख़ुशगवार मंज़र
तुझे भी यह ख़ुशगवार मंज़र अगर न भाए तो लौट आना
तुम्हारी सरगोशियाँ अभी तक वह मेरे कानों में गूँजती हैं
हसीन लमहा वह ज़िंदगी का जो याद आए तो लौट आना
ग़ज़ल सुनाऊँ मैं किसको हमदम कि मेरी जाने ग़ज़ल तुम्हीं हो
दोबारा वह नग़म-ए- मोहब्बत जो याद आए तो लौट आना
ख़याल इसका नहीं कि दुनिया हमारे बारे में क्या कहेगी
जो कोई तुमसे न अपना अहदे वफ़ा निभाए तो लौट आना
है दिन में बे-कैफ़ क़लबे मुज़तर बहुत ही सब्र आज़मा हैं रातें
तुम्हेँ भी ऐसे मे याद मेरी अगर सताए तो लौट आना
तुझे भी एहसास होगा कैसे शबे जुदाई गुज़र रही है
सँभालने से भी दिल जो तेरा संभल न पाए तो लौट आना
कभी न तू रह सकेगा मेरे बग़ैर ‘बर्क़ी’ मुझे यक़ीं है
ख़याल मेरा जो तेरे दिल से कभी न जाए तो लौट आना
हैं किसी की यह करम फर्माइयाँ / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
हैं किसी की यह करम फर्माइयाँ
बज रही हैं ज़ेहन मेँ शहनाइयाँ
उसका आना एक फ़ाले नेक है
ज़िंदगी मेँ हैँ मेरी रानाइयाँ
मुर्तइश हो जाता है तारे वजूद
जिस घडी लेता है वह अंगडाइयाँ
उसकी चशमे नीलगूँ है ऐसी झील
जिसकी ला महदूद हैँ गहराइयाँ
चाहता है दिल यह उसमेँ डूब जाँए
दिलनशीँ हैँ यह ख़याल आराइयाँ
मेरे पहलू मेँ नहीँ होता वह जब
होती हैँ सब्र आज़मा तन्हाइयाँ
तल्ख़ हो जाती है मेरी ज़िंदगी
करती हैँ वहशतज़दा परछाइयाँ
इश्क़ है सूदो ज़ियाँ से बेनेयाज़
इश्क़ मे पुरकैफ हैँ रुसवाइयाँ
वलवला अंगेज़ हैँ मेरे लिए
उसकी बर्क़ी हौसला अफज़ाइयाँ
मुर्तइश. कंपित, सब्र आज़मा. नाक़ाबिले बरदाश्त नीलगूँ , नीली सूदो ज़ियाँ . नफ़ा -नुकसान
है प्रदूषण की ज़रूरी रोकथाम / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
है प्रदूषण की ज़रूरी रोक थाम
सब का जीना कर दिया जिसने हराम
आधुनिक युग का यह एक अभिशाप है
जिस पे आवश्यक लगाना है लगाम
है कयोटो सन्धि बिल्कुल निष्क्रिय
है ज़रूरी जिसका करना एहतेराम
अब बडे शहरोँ मेँ जीना है कठिन
ज़हर का हम पी रहे हैँ एक जाम
है प्रदूषित हर जगह वातावरण
काम हो जाए न हम सब का तमाम
बढ़ रहा है दिन बदिन ओज़ोन होल
है ज़ुबाँ पर हर किसी की जिसका नाम
है गलोबल वार्मिंग का सब को भय
लेती है प्राकृकि से जो इंतेक़ाम
आज मायंमार है इसका शिकार
कल न जाने हो कहाँ यह बेलगाम
इसका जारी हर जगह प्रकोप है
हो नगर 'अहमद अली' या हो ग्राम
आज ग्रसित है प्रदूषण से हमारा वर्तमान / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी
है प्रदूषण की समस्या राष्ट्रव्यापी सावधान
कीजिए मिल जुल के जितनी जल्द हो इसका निदान
है गलोबलवार्मिंग अभिषाप अन्तर्राष्ट्रीय
इससे छुटकारे की कोशिश कार्य है सबसे महान
हो गई है अब कयोटो सन्धि बिल्कुल निष्क्रिय
ग्रीनहाउस गैस है चारोँ तरफ अब विद्यमान
आज विकसित देश क्यूँ करते नहीँ इस पर विचार
विश्व मेँ हर व्यक्ति को जीने का अवसर है समान
हर तरफ प्रकृति का प्रकोप है चिंताजनक
ले रही है वह हमारा हर क़दम पर इम्तेहान
पूरी मानवता तबाही के दहाने पर है आज
इस से व्याकुल हैँ निरन्तर बच्चे बूढे और जवान
ग्रामवासी आ रहे हैँ अब महानगरोँ की ओर
है प्रदूषण की समस्या हर जगह बर्क़ी समान